Tuesday, August 30, 2016

फिर चुनाव! बार-बार कब तक ठगे जायेंगे …


साथियो!
चुनाव जैसे-2 करीब आता जा रहा है वैसे-2 चुनावी मेढकों की उछल-कूद, टर्र-टर्र का कर्कश कर्णभेदी शोर चारों ओर देखा-सुना जा सकता है। चुनावी मदारियों में घमासान मचा हुआ है। तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। किस जाति के नेता को टिकट देने पर उस जाति के ज्यादा वोटरों को रिझाया जा सकता है, इसके लिए चिन्तन शिविर लगाए जा रहे हैं। जनता का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए बीच-बीच में साम्प्रदायिक उन्माद भी भड़काया जा रहा है। दो कौड़ी के भाड़े के कलमघसीटों ने इस घटिया जातिवादी साम्प्रदायिक राजनीति को नरम-सा शब्द प्रदान किया है –“सोशल इंजीनियरिंग”। चुनावी मदारी यह “सोशल इंजीनियरिंग” जनता की लाशों पर कर रहे हैं। जोड़-तोड़ का दौर शुरू हो चुका है। हर पार्टी एक-दूसरे के नेताओं को तोड़कर अपने में मिला लेने के लिए गोट बिछा रही है। जिसे वो कल तक भ्रष्टाचारी कहते नहीं थकते थे, उसी के पार्टी छोड़ने पर अपनी पार्टी में मिला लेने के लिए सबमें होड़ मची है। केन्द्र व राज्य  सरकार सरकारी धन जनकार्यों में लगाने की जगह अपनी छवि चमकाने के लिये विज्ञापनों में रिकार्ड तोड़ खर्च कर रही है। वैसे गुण्डागर्दी व आपराधिक मामलों में नेता एक-दूसरे की ठीक ही पोल-पट्टी खोल रहे हैं। वैसे तो जनता के लिए खजाना खाली है लेकिन चिन्तनशिविरों, रैलियों, रेडियो, टीवी चैनलों और अखबारों में पेज भर-भर के विज्ञापन करने के लिए इन पार्टियों के पास पैसों की कोई कमी नहीं है। साथियों,सोचने वाली बात यह है कि इस चुनावी घमासान में आम जनता के एजेण्डे सिरे से गायब हैं। बढ़ती महंगाई,बेरोजगारी, गरीबी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे किसी पार्टी के एजेण्डे में नहीं हैं। सभी चुनावी पार्टियाँ बड़ी बेशर्मी से जनता के असली मुद्दों की जगह पर जाति-धर्म के नकली मुद्दों की घृणित राजनीति कर रही हैं।
वास्तव में, यह पहली बार नहीं हो रहा है। 1951-52 में जब से चुनाव शुरू हुए तब चुनावों में केवल यही तय होता है कि जनता अबकी साँपनाथ से डसी जायेगी या नागनाथ से। जनता को बहकाने के लिए इन पार्टियों के नाम, झण्डे अलग होते हैं लेकिन उनकी नीतियों में कोई फर्क नहीं होता। इन चुनावी पार्टियों की तुलना अगर रावण के दस चेहरों से की जाय तो जरा भी गलत नहीं होगा। आम जनता एक-चेहरे से ऊब कर दूसरे पर दांव लगाती है, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात! वैसे तो आम जनता भी एक हद तक इस सच्चाई से वाकिफ है लेकिन आम जनता विकल्पहीनता की स्थिति का शिकार है। अभी हाल ही में लोक सभा चुनाव में जनता से महंगाई खत्म करने, रोजगार पैदा करने, “अच्छे दिन” दिखाने के जुमलागाड़ी पर सवार होकर भाजपा के सत्ता में पहुँचने के बाद से ही महंगाई इतनी तेज गति से बढ़ रही है कि आम जनता की थाली से दाल, सब्जी तक गायब हो गई है। लेकिन झूठ बोलने की सीमा तोड़ते हुए प्रधानमंत्री बता रहे हैं कि महँगाई पर काबू लिया गया है। छात्रों-युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने का वायदा करने वाली यह सरकार जगह-जगह छात्रों के आन्दोलनों का दमन कर रही है। रही बात रोजगार की तो अगर ‘सरकारी लेबर ब्यूरो’ की रिपोर्ट से चलें तो 2015 की दो तिमाहियों में 0.43 लाख और 0.20 लाख रोजगार कम हो गए। उच्च शिक्षा की हालत पहले ही खस्ता थी। अबकी बार यू.जी.सी. के बजट में सीधे-सीधे लगभग 55 प्रतिशत की कटौती करने से उच्च शिक्षा का कबाड़ा होना तय है। आई.आई.टी. जैसे संस्थानों की फीस बढ़ाकर 2 लाख की जाने वाली है। ऐसे में आई.आई.टी. जैसे संस्थान आम छात्रों के लिए सपना बनकर रह जायेंगे। मोदी सरकार ने खाने-पीने के सामान पर सब्सिडी 10000 करोड़ रुपये कम कर दिया है। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण के बजट में करीब 6000 करोड़ रुपये की कटौती की गयी है। यानि अब सरकारी अस्पताल में दवा और ईलाज पहले से दुगना महँगा मिलेगा। आम जनता की जेब पर डाका डालते हुए सारे अप्रत्यक्ष कर बढ़ा दिए गए हैं। जिससे महँगाई तेजी से बढ़ी है जबकि बड़ी-2 देशी-विदेशी कम्पनियों का 1 लाख 14 हजार करोड़ का कर्ज माफ कर दिया गया है, अम्बानियों, अडानियों का 70000 हजार करोड़ का पेंडिंग टैक्स भी माफ कर दिया गया है। सबके खाते में 15-15 लाख रुपये डालने और 100 दिन के भीतर काला धन लाने की बात चुनावी जुमला थी, ये तो अमित शाह पहले ही बता चुके हैं। जाहिर है चाय बेचने वाले गरीब प्रधानमंत्री के सत्ता में आने पर अमीरजादों को ‘अच्छे दिन’ की सौगात मिली है और गरीब जनता को पहले से भी ज्यादा असुरक्षा, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण, बेघरी, भुखमरी, भ्रष्टाचार व अपराध मिला है। भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने की हाँक लगाने वाली भाजपा के तमाम मंत्रियों का नाम ललितगेट घोटाला, पंकजा मुंडे घोटाला, तावड़े घोटाला, व्यापम घोटाला, खनन विभाग में घोटाला, राष्ट्रीय शहरी आजीविका योजना घोटाला और इन सबको पीछे छोड़ते हुए पनामा घोटाला में आया है।
वास्तव में देखा जाय तो सभी चुनावी पार्टियाँ की कमोबेश यही स्थिति है। यह भी समझ लेना जरूरी है कि क्या वजह है कि चुनाव में चाहे जो पार्टी जीते, क्यों वह गरीबों को लूटने व अमीरजादों की तिजोरी भरने का ही काम करती है? इसकी पहली वजह ये है कि चुनाव प्रक्रिया इतनी महंगी व खर्चीली है कि सामान्य आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता है। अमीर लोग ही चुनाव लड़ते हैं। दूसरी वजह यह है कि, चुनावी पार्टियों की रैलियाँ, विज्ञापनों, होर्डिंग-पोस्टर-बैनर आदि में आने वाले अरबों रुपये खर्च करने वाले बड़े-बड़े उद्योगपति, धन्नासेठ, अमीरजादे हैं। इसलिए सत्ता में चाहे जो पार्टी आये, अमीरों की स्थिति पर कभी आंच नहीं आती जबकि गरीब और गरीब होते जाते हैं। आजादी के बाद चुनाव के 60-70 सालों का इतिहास इसका गवाह है। इधर चुनावी पार्टियों ने टीवी-चैनलों-सोशल मीडिया और विज्ञापनों पर अरबों-खरबों रुपये खर्च करके एकदम सफ़ेद झूठ बोलते हुए अपनी छवि चमकाने का एक नया खेल शुरू किया है। मोदी सरकार की अपार सफलता के बाद सभी चुनावी पार्टियाँ इस हथकण्डे को अपना रही हैं।
साथियों, सोचने की जरूरत है कि इन पार्टियों के रैलियों, प्रचार अभियानों में खर्च किये जाने वाले अरबों रूपये अगर जनता के हित में खर्च किये जाते तो देश की तस्वीर कैसी होती? देश में किसी चीज की कमी नहीं है। गोदामों में अनाज सड़ता रहता है और बच्चे भूख व कुपोषण से मरते रहते हैं। नेताओं-नौकरशाहों को जनता से सैकड़ों गुना बेहतर जीवन स्थितियाँ कानूनी तौर पर मुहैया है पर उसके बाद भी नेता-नौकरशाह-उद्योगपति जनता की गाढ़ी कमाई को लूट-2 कर अपने तकियों, बोरों, गद्दों और विदेशी बैंकों में ठूँसते रहते हैं। अगर ये सारा धन देश में शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन आदि में निवेश किया जाय तो तमाम समस्याओं सहित बेरोजगारी का भी समाधान संभव है। कहा जाता है कि ये लोकतंत्र है मतलब जनता का राज। पर सब कुछ पैदा करने वाली जनता भुखमरी का शिकार है, फटेहाल है, जबकि नेता यानि जनता के सेवक अय्याशियाँ कर रहे हैं।
साथियों इतने सालों के इंतजार के बाद भी अगर हम चुनावी मदारियों के भरोसे बैठे रहे तो हम अपनी आने वाली पीढियों के लिए भुखमरी, बेरोजगारी, गरीबी का दलदल छोड़ जायेंगे। एक कब्रिस्तान छोड़ जायेंगे जहाँ चारों तरफ बस मुर्दा शान्ति होगी। अगर हम जीवित हैं, इंसाफपसंद हैं तो आइये! उठ खड़े हों! जाति-धर्म, क्षेत्र के झगड़े भुलाकर फौलादी एकता बनाएं और इन फीसदी को धूल चटा दें। 

Ref :‘नौभास 

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