किसान विद्रोह पर उतारू हैं। उनके गुस्से की आग में देश जल रहा है और इसकी आग मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में भी फैल रही है।
भारतीय किसान दुखद विरोधाभासी स्थिति में फंसे हुए हैं। चाहे वह सूखा हो अथवा भारी ऊपज, उनका जीवन दुखद ही बना रहा। दोनों स्थितियों में वे परेषान हैं। यदि फसल नहीं उगती है तो वे अपने हाल पर रोते हैं और यदि फसल की भरमार होती है तो उन्हें उसकी उचित कीमत नहीं मिलती। उन्हें दोधारी तलवार पर से गुजरना पड़ता है और विपरीत परिस्थितियों से जूझने के अलावा उनके बचाव का कोई उपाय नहीं है। इससे पहले कृषक समाज को ऐसे संकट की स्थिति से नहीं गुजरना पड़ा था। किसानों के त्राहिमाम के बावजूद मोदी के कान पर जूं नहीं रेंगता।
किसान केन्द्र की राजग सरकार के षिकंजे में जकड़ गए हैं। ऐसा लगता है कि सरकार किसानों को बहकावे में रखना चाहती है जबकि देश के अधिकतर हिस्सों में किसान मर रहे हैं। तथ्यों के विपरीत देश की 54 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है और नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 53 प्रतिशत किसान गरीबी रेखा से नीचे का जीवन बसर कर रहे हैं और दोनों जून का भोजन जुटाने के लिए संघर्षशील रहते हैं। 58 प्रतिशत किसान खाली पेट सोने पर मजबूर होते हैं जबकि करीब 4 करोड़ 70 लाख परिवार कर्ज के भार तले दबे हुए हैं। किसानों पर 12 लाख 60 हजार करोड़ कर्ज का बोझ है जिसका वे भुगतान करने में असमर्थ हैं।
मध्य प्रदेश में 6 जून को किसानों पर गोली चलाने की भयावह घटना के बाद देश के राजनीतिक रूप से सबसे संवेदनषील राज्य उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किए गए चुनावी वादों के भूत का डर उन्हें सताने लगा है। कारण बहुत सरल है। यूपी के किसान संकट से उबारने की मांग कर रहे हैं जैसा कि प्रधानमंत्री ने चुनाव अभियान के दौरान वादा किया था। दूसरे राज्य के किसान भी राहत पैकेज की मांग करने लगे हैं जिसमें कृषि ऋण की माफी शामिल है।
कड़े मुकाबले वाले चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी ने यह आश्वासन दिया था कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाएगा। इस साल भारतीय जनता पार्टी ने बहुमत प्राप्त करके सरकार बनाई। परन्तु यूपी सरकार यह भूल गई कि उसने किसानों की जमीन पर लिए गए कर्ज पर राहत देने का चुनावी वादा किया था। तथ्य यह है कि भारत के 90 मिलियन घरों में 52 प्रतिशत लोग ऋणग्रस्त हैं।
30 सितंबर, 2016 तक देशव्यापी कृषि ऋण 12.6 ट्रिलियन रूपये था। किसान रकबा कम होते जाने, मिट्टी की बिगड़ती गुणवत्ता, उच्च उत्पादन लागत और उत्पाद की कम कीमत जैसी विषम परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। नवीनतम सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश के 18 मिलियन कृषि पर आश्रित परिवारों में से 43.8 प्रतिशत ऋण-ग्रस्त हैं और औसत कृषि ऋण 27,300 रूपए प्रति व्यक्ति है। (जून, 2013 को समाप्त हुए कृषि वर्ष के अनुसार) ऋण रहित कार्यक्रम भूमिहीन कृषि मजदूरों को सहायता प्रदान करने में विफल रहता है जिनकी पहंुच बैंक तक नहीं होती है। यह कार्यक्रम उन छोटे व सीमांत किसानों की भी सहायता नहीं कर पाता जो सेठ/साहूकारों से ऋण प्राप्त करते हैं।
भारतीय किसान संघ के संकाय के मुख्य सलाहकार पी. चेंगल रेड्डी ने कहा, ‘‘किसान अपनी मृत्यु-षय्या पर है इसलिए कुछ शक्तिदायक खुराक सहायता कर सकती है, लेकिन मुझे नहीं पता कि किसानों को कितनी देर तक जीवित रखा जा सकेगा।’’ उन्होंने ऋण माफी की आवष्यकता पर जोर दिया, परन्तु कोई भी उनकी पीड़ा को समझ नहीं पा रहा है।
पंजाब और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्यों की कृषि ऋण माफी के लिए एक सार्वजनिक सूचना जारी की है परन्तु सरकार ने यह संकेत नहीं दिया है कि वह देशव्यापी कृषि ऋण माफी पर विचार करने के लिए तैयार है।
वित्तमंत्री अरूण जेटली ने संसद में यह स्वीकार किया था कि कई राज्यों ने कृषि ऋण माफी का अनुरोध किया है और सदन को यह आश्वासन दिया था कि सरकार राज्य-विषेष के लिए कोई प्रथक दृष्टिकोण नहीं अपनाएगी।
दक्षिणी राज्य तमिलनाडु के 30 किसानों ने आत्महत्या कर चुके किसानों की खोपड़ी लेकर पिछले महीने राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया था। वे कृषि ऋण माफी की मांग कर रहे थे। उन्होंने कहा कि भयंकर सूखे के कारण वे अपना कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं हैं।
अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों की भारतीय शोध परिषद् के प्रोफेसर अषोक गुलाटी ने कहा, ‘‘यह पिछली नीतियों की विफलता है। यह एक तरफ प्रायष्चित है तो दूसरी तरफ तुष्टिकरण हैं।’’
भारतीय कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण सुधारों की जरूरत है जैसे भूमि पट्टे और निजी निवेश को प्रोत्साहित करना तथा आवष्यक वस्तुओं व बाजार के मुद्दों पर नीतिगत परिवर्तन। गुलाटी ने कहा कि इस एजेंडे को पूरा करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवष्यकता है।
देश अपनी गलती को समझने में कभी इतना विभाजित नहीं था, जब इसने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को वोट देकर विजयी बनाया। प्रधानमंत्री मोदी अतिषयोक्तिपूर्ण बयानबाजी करने के विषेषज्ञ हैं। उनके बयानों और लोकलुभावन नारों से देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बहुत निराषाजनक प्रतीत होती है।
घरेलू ऋणों के उच्च स्तर को किसानों के संकट का एक प्रमुख कारण माना गया है। जीवन स्तर व फसल उत्पादकता को बढ़ाने और आत्महत्या में कमी लाने के लिए बिना शर्त ब्याज रहित ऋण का उपयोग विवादास्पद है।
मुख्य लेखा परीक्षक ने 2008 की कृषि ऋण माफी से संबंधित अपनी 2013 की रिपोर्ट में कहा है कि कई मामलों में जरूरतमंद छोटे किसानों को छोड़ दिया गया जबकि अयोग्य किसानों को ऋण माफी की सुविधा दी गई। आई.सी.आर.आई.ई.आर की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक कृषि ऋण माफी योजना से बैंकों के फंसे कर्ज में बढ़ोतरी हुई है और यह 4 वर्षों में तीन गुणा बढ़ गया है। (मार्च, 2013)
कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने कहा है कि ऋण माफी का उपयोग वैसी स्थिति में होना चाहिए जब किसानों के पास संकट से उबरने का कोई विकल्प मौजूद न हो।
भारत में कृषि ऋण माफी को चुनाव जीतने का एक प्रमुख हथियार माना जाता है। डामनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने 2008 में 78,000 करोड़ रूपए का कृषि ऋण माफ किया था लेकिन कोई भी अन्य सरकार ऐसा पुनः करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। इस प्रकार के कार्यों के लिए अदम्य इच्छाशक्ति और साहस की आवष्यकता होती है। 78000 करोड़ रूपए की कृषि ऋण माफी से 3.7 करोड़ किसान लाभान्वित हुए थे।
पिछले तीन सालों में आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के निराषाजनक प्रदर्शन की आलोचना हुई है, ‘‘सपनों के सौदागर प्रधानमंत्री मोदी के सपने लोगों के लिए दुःस्वप्न बन गये हैं।’’
कांग्रेस पार्टी ने मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर उसे बेनकाब करने के लिए एक अभियान चलाया है।
अधिकतम प्रचार, न्यूनतम विचार
‘‘प्रधानमंत्री मोदी के शासनकाल का परिणाम है- कृषि विकास में गिरावट। इसके कारण आर्थिक मंदी, निवेश में कमी और पिछले 10 वर्षों में सबसे कम रोजगार सृजन हुआ है। उनके शासनकाल को ‘‘अधिकतम प्रचार, न्यूनतम विचार’’ जैसे शब्दों से पारिभाषित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने फिर से ब्रांडिंग, फिर से पैकेजिंग और फिर से नामकरण करने में विषेषज्ञता हासिल की है।
प्रधानमंत्री ने यूपीए सरकार के कई कार्यक्रमों का नाम बदलकर उन्हें अपना लिया है। उन्होंने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना कार्यक्रम की भी यह कहकर आलोचना की कि बीमा कंपनियों ने प्रीमियम के तौर पर जहां पिछले 2 वर्षों में 16000 करोड़ रूपए का संग्रह किया वहीं कंपनियों ने किसानों को मात्र 7000 करोड़ रूपए प्रदान किए।
केन्द्र सरकार ने 2014 में किए गए अपने वादे को पूरा नहीं किया जिसके तहत कृषि उत्पादन की लागत पर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य में 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी देने की बात कही गई थी।
पिछले 2 वर्षों में 60 लाख टन गेहूं आयात करने के केन्द्र सरकार के निर्णय पर सवाल उठता है कि सरकार ने किसानों से गेहूं की सरकारी खरीद में पिछले दो वर्षों में 60 लाख टन की कमी की है जिसकी भरपाई आयात के द्वारा की गई है। यही कृषि क्षेत्र में ‘‘मेक इन इंडिया’’ की स्थिति है।
पिछले साल भरपूर फसल होने के बावजूद दालों के मामले में भी ऐसा ही किया गया था। बफर स्टाॅक को बनाए रखने के नाम पर 50 लाख टन दालों का आयात 45 रूपए प्रति किलो की दर पर किया गया था जिसे बाद में बाजार में 250 रूपए प्रति किलो की दर से बेचा गया। यह एक घोटाले का संकेत देती है। उन्होंने जानकारी देते हुए कहा कि यूपीए शासन के दौरान कृषि विकास दर 3.5 प्रतिशत थी जो अब घटकर 1.7 प्रतिशत रह गई है। उन्होंने कहा कि यदि कृषि में वृद्धि नहीं होती है तो देश प्रगति नहीं कर पाएगा तथा शहरी ग्रामीण क्षेत्रों के बीच अंतर और बढ़ेगा।
फरवरी, 2015 में मोदी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक शपथ पत्र दाखिल कर कहा था कि उत्पादन लागत के अलावा 50 प्रतिशत लाभ देना संभव नहीं है।
पहली बार रोजगार के अवसरों में कमी आई है। प्रधानमंत्री ने प्रतिवर्ष 2 करोड़ नौकरियों के सृजन का वादा किया था। परन्तु सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2015 में 1.5 लाख और 2016 में 2 लाख रोजगार के नये अवसरों का सृजन हुआ। नोटबंदी की ‘‘राजनीतिक आपदा’’ के परिणामस्वरूप आर्थिक गतिविधियों में गिरावट आई है, जिससे मध्यम और छोटे उद्यम बुरी तरह प्रभावित हुए और अब बैंकों में जमा धनराषि बड़े उद्योगों को नहीं जा रही है।
उद्योग, सेवा और अन्य क्षेत्रों में गिरावट दर्ज की गई है। कृषि क्षेत्र संकटग्रस्त है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। आम आदमी संकट में है। आवष्यक वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं और षिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं आम आदमी की पहुंच के बाहर है। विभिन्न वित्तय निर्णयों के द्वारा बड़े उद्योगों को समर्थन दिया जा रहा है जिससे उन्हें 50 लाख करोड़ रूपए का लाभ मिला है। ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा देने के लिए विदेशी निवेशकों को कई प्रकार की रियायतें दी गई हैं। नोटबंदी सबसे विनाषकारी निर्णय था। बैंक दिवालियापन की कगार पर खड़े हैं।
बीजेपी-एनडीए सरकार तीन साल पूरे कर चुकी है और समारोहों के आयोजन की तैयारी कर रही है। क्या आम आदमी, किसान, युवा, मजदूर, उद्योग जगत उत्सव मना रहे हैं? यह किसका उत्सव है? क्या यह सामान्य जनों का उत्सव है? बीजेपी उन समारोहों के आयोजन और प्रचार पर 2000 करोड़ रूपए खर्च कर रही है पर पिछले तीन सालों में जो आकांक्षाएं, भरोसा, विष्वास चूर हुए हैं और पूरे राष्ट्र को धोखा दिया गया है उसका क्या होगा? पिछले तीन सालों में वाहवाही, बयानबाजी और अतिषयोक्तिपूर्ण व्यक्त बीजेपी सरकार की पहचान रहे हैं। झूठ बोलना, मीडिया प्रबंधन, प्रचार और आत्म प्रषंसा - क्या यही इस सरकार की पहचान रह गई हैं?
भाषण या आष्वासनः यही है मेरा शासन
सरकार के तीन वर्षों के कार्यकाल को ‘‘भाषण या आष्वासनः यही है मेरा शासन’’ कहा जा सकता है। विभिन्न सेक्टरों को छोड़कर सिर्फ एक महत्वपूर्ण सेक्टर ‘‘रोजगार’’ पर नजर डालें। जैसा कि आप जानते हैं सबसे बड़ी चुनौती बेरोजगारी है। युवा रोजगार चाहते हैं, परन्तु 520 मिलियन युवाओं के लिए रोजगार सृजन की दर पिछले 7 वर्षों में अपने सबसे निचले स्तर पर है।
चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने प्रतिवर्ष 2 करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था। इसके क्या परिणाम हुए? 2015 में मात्र 1.35 लाख रोजगार के नये अवसरों का सृजन हुआ। 2028 तक भारत में 34 करोड़ नौकरियों की आवष्यकता होगी। रोजगार के अवसरों का सृजन कैसे होगा? केवल नारों से या घरेलू व विदेशी निवेश के लिए विष्वास का वातावरण बनाने से? घरेलू निवेश की क्या स्थिति है? बैंक ऋण की क्या स्थिति है? पिछले 3 वर्षों में बैंक ऋण सबसे निचले स्तर 5.3 प्रतिशत पर रहा। घरेलू निवेश भी सबसे निचले स्तर पर है। बीजेपी लोगों का ध्यान भटकाने की कोषिष करती है। यह ‘‘कलाकारी की राजनीति’’ है। युवाओं को निरंतर आश्वासन दिए जा रहे हैं। सवाल है- पिछले तीन वषो में रोजगार के कितने अवसरों का सृजन हुआ और साथ ही साथ इस दौरान कितनी नौकरियां खत्म हो गईं?
सरकार को अपनी रोजगार-रणनीति पर श्वेत पत्र जारी करना चाहिए। देश भाषण और आश्वासन सुनना नहीं चाहता। देश जानना चाहता है कि पिछले तीन वर्षों के आंकड़ों के आधार पर सरकार की अगले दो वर्षों के लिए रोजगार की रणनीति क्या है?
कांग्रेस पार्टी के महासचिव और सांसद श्री कमलनाथ ने कृषि क्षेत्र में मोदी सरकार द्वारा किए गए दावों की पोल खोलते हुए कहा, ‘‘कृषि क्षेत्र संभवतः सबसे निचले स्तर पर है। कृषि विकास दर 4.3 प्रतिशत से घटकर 1.3 प्रतिशत रह गई है। किसानों को 50 प्रतिशत लाभ देने की बात कही गई थी। न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में यूपीए द्वारा 10 वर्षों में की गई प्रतिशत वृद्धि की तुलना पिछले 3 वर्षों की प्रतिशत बढ़ोतरी से करें। यह निराषाजनक तस्वीर प्रस्तुत करता है।’’
श्री कमलनाथ ने कहा कि मुद्दा केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का नहीं है। सरकारी खरीद कितनी हुई? अनाजों की सरकारी खरीद नहीं हो रही है। इस कारण किसान अपने अनाज व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर हो रहे हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य का उद्देष्य है कि किसान व्यापारियों की दया पर निर्भर न रहें। लेकिन किसानों को व्यापारियों पर निर्भर रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
देश में प्रतिदन औसत 35 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसी भी अन्य देश का इतना शर्मनाक रिकार्ड नहीं है। उन्होंने चिंता प्रकट करते हुए कहा कि 2016-17 में 16000 किसानों द्वारा आत्महत्या करना संभावित है।
उद्योग जगत की विषाल धन राषि के कर्ज माफ किए जा रहे हैं। अंतरंग व्यावसायिक समुदाय (क्रोनी) के कर्ज माफ किए जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक यह धनराषि लगाभग 1.54 लाख करोड़ रूपए है। किसान ऋण-ग्रस्त हैं। भारतीय कृषक समुदाय कर्ज में है। किसान पिछले कर्ज को चुकाने के लिए नये कर्ज ले रहे हैं। किसान ऊपज बढ़ाने या कृषि में विकास करने के लिए ऋण नहीं ले रहे हैं। यह भयावह स्थिति किसानों की आत्महत्या में दिखाई पड़ती है।
श्री कमलनाथ ने एनडीए के दावों की पोल खोलने के लिए कुछ आंकड़े पेष किए, ‘‘खरीफ फसलों के लिए किसानों ने प्रीमियम के तौर पर 17,185 करोड़ रूपए बीमा कंपनियों को दिए। केवल 3.9 करोड़ किसानों को 6,808 करोड़ रूपए राहत के रूप में प्राप्त हुए। इस प्रकार बीमा कंपनियों को शुद्ध लाभ 10,373 करोड़ रूपए प्राप्त हुए। बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने वाली इस योजना को वे ‘‘किसान फसल बीमा योजना’’ का नाम देते हैं।’’ यह एक उदाहरण है कि क्या हो रहा है?
हम देख रहे हैं कि सीमा शुल्क में कमी की जा रही है और गेहूं का आयात बढ़ रहा है। आयातों पर रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। भारत एक खुले बाजार का देश है। आपको यह याद होगा कि विष्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) में मैंने एक मुद्दा उठाया था कि भारतीय किसान पेषे के तहत या लाभ कमाने के लिए खेती नहीं करते। वे अपना जीवन यापन के लिए फसल उगाते हैं। इसलिए कृषि पर निर्भर जीवन यापन करने वाले किसानों के लिए एक पृथक नीति होनी चाहिए। लेकिन सरकार नारों के अलावा कोई योजना लेकर नहीं आ रही है। प्रधानमंत्री मोदी के वादों के बारे में श्री कमलनाथ ने कहा, ‘‘दुनिया के किसी भी देश की सरकार ने उतने नारे नहीं दिए हैं जितने मोदी सरकार ने पिछले 3 वर्षों में दिए हैं। सत्ता में आने के बाद किसी भी सरकार ने इतनी विषाल धनराषि प्रचार पर खर्च नहीं की है। हम ‘‘मेक इन इंडिया’’, ‘‘स्टार्ट आप इंडिया’’, ‘‘डिजिटल इंडिया’’ की हालत देख रहे हैं और यह भी देख रहे हैं कि इनके प्रचार पर कितनी धनराषि खर्च की गई है। खर्च की गई धनराषि की तुलना में इन कार्यक्रमों से होने वाले लाभ बहुत कम हैं।’’ उनके अनुसार हम कई घोषणाएं सुन चुके हैं जैसे नोटबंदी। यदि इसका उद्देष्य काले धन का पता लगाने के लिए था तो ठीक है। देश जानना चाहता है कि कितना कालाधन उजागर हुआ, कितने नकली नोटों का पता चला? रिकार्ड कहां हैं? आंकड़े कहां हैं? सरकार का बयान कहां है?
निष्कर्ष यह है कि भारत राजनीतिक परिवर्तन चाहता है। राजनीति में यह बदलाव केवल वर्तमान राजनीति में ही नहीं, बल्कि भविष्य की राजनीति में भी प्रतिबिंबित होने जा रहा है।
(कांग्रेस संदेश द्वारा संकलित)
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